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रंग- गुलाल से नहीं पलाश के फूलों से होली खेलते हैं झारखंड के आदिवासी, कारण जानकर हो जाएंगे हैरान

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Updated Sun, 28 Mar 2021 13:24 IST

रंग- गुलाल से नहीं पलाश के फूलों से होली खेलते हैं झारखंड के आदिवासी, कारण जानकर हो जाएंगे हैरान

रांची. मार्च के मौसम में झारखंड की कुदरती खूबसूरती पलाश के फूलों के साथ जवां हो उठती है. फागुन में जहां एक ओर होली की दस्तक होती है, वहीं आदिवासी संस्कृति में पलाश के फूलों का आगमन भी इसी महीने शुरू हो जाता है. लाल फूलों वाले पलाश के पेड़ों की नीचे की जमीन फूलों से लाल हो उठती है.

आदिवासी संस्कृति में होली की बात करें तो पलाश का सीधा कनेक्शन इससे जुड़ता नजर आता है. क्योंकि होली के कुछ दिनों बाद ही आदिवासी समाज का सबसे बड़ा त्योहार सरहुल शुरू होता है. जो पूरी तरह से प्रकृति पर्व ही है. ऐसे में होली पर राजधानी रांची के सुदूरवर्ती जंगली ग्रामीण इलाकों में लोग पलाश के फूलों से ही रंग बनाकर होली खेलते हैं.

राजधानी रांची के नामकुम प्रखंड के लालखटंगा पंचायत में इनदिनों पलाश के फूलों की ऐसी ही होली खेली जा रही है. यहां के ज्यादातर ग्रामीण रंग, अबीर और गुलालों की जगह पलाश के बनाये रंगों की तरजीह देते हैं.

लालखटंगा पंचायत के ग्रामीण छज्जू मुंडा बताते हैं कि उन्होंने बचपन से ही पलाश के फूलों की होली खेली है. पलाश के फूलों को केले के पत्ते के साथ मिलाकर पीसा जाता है और उसमें गर्म पानी मिलाकर रंग बनाया जाता है. ये रंग पूरी तरह हर्बल होता है. और यह पूरी तरह चेहरे और त्वचा के साथ फ्रेंडली होता है.

 

गांव के बच्चे भी पलाश के फूलों की होली खेलते नजर आते हैं. वे सिर्फ इन फूलों को हथेली पर पीसकर ही उसके रस को रंग के रूप में इस्तेमाल करते हैं.

लालखटंगा गांव के मुखिया रीतेश उरांव ने बताया कि पूरे गांव के जंगली इलाकों में इनदिनों सखुआ के सरई फूलों की खुशबू फैली है. जिसका इस्तेमाल होली के बाद सरहूल में किया जाएगा. ऐसे में एक तरफ जहां पलाश होली का गवाह बन रहा है. वहीं सरई फूलों को सरहूल का इंतजार है.

 

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